गीत: “पाँच कोशों की साधना”

(ताली – 8 मात्रा, राग – यमन/भैरवी शैली, गति – मध्यम)

(मुखड़ा)

पाँच कोशों की साधना, जीवन बने मधुर गाथा।
तन, प्राण, मन से होकर, पहुँचे आत्मा की छाता।।

 

(अंतरा 1 – अन्नमय कोश)
शुद्ध अन्न से तन पावन होवे,
उपवास से चेतन जगे।
आसन से बहती प्राण तरंगें,
तत्त्वों का संतुलन लगे।
धरा, जल, अग्नि, गगन, समीर,
इनसे ही जीवन की रेखा।
पाँच कोशों की साधना…

 

(अंतरा 2 – प्राणमय कोश)
पंच प्राण में बहती ऊर्जा,
बंधों से हो गहरा मेल।
मूल उड्डीयान, जालंधर सध जाएँ,
नाड़ी हो निर्मल, न कोई खेल।
स्वांस में ही छिपा है जीवन,
साधो तो मिले प्रकाश दिशा।
पाँच कोशों की साधना…

 

(अंतरा 3 – मनोमय कोश)
मन की लहरों को रोको धीरे,
त्राटक, ध्यान, जप का गीत।
रूप, रस, गंध और शब्द-स्पर्श,
चेतन हो मन, बहे संगीत।
एकाग्र हो चित्त जब जागे,
आत्म मिलन की बढ़े आशा।
पाँच कोशों की साधना…

 

(अंतरा 4 – विज्ञानमय कोश)
सोऽहम, आपजा, स्वर की भाषा,
गूँजे भीतर परम प्रकाश।
ग्रंथियों को जब हम खोलें,
ब्रह्म मिले साक्षात् प्रकाश।
विचारों में हो विवेक का दीप,
अज्ञान मिटे, जगे परिभाषा।
पाँच कोशों की साधना…

 

(अंतरा 5 – आनंदमय कोश)
नाद में है शाश्वत प्याला,
बिंदु ध्यान से झरे उजियाला।
कला ध्यान में शक्ति के स्वर,
जहाँ नहीं कोई दुख का पहरा।
जो सहेजे इन सभी कोशों को,
वही पा ले परम अनंद राहा।
पाँच कोशों की साधना…

 

(समापन / आलाप)
तन से प्राण, मन से ज्ञान,
ज्ञान से जगे दिव्य पथ का मान।
अंत में जो बहे बस एक ही बात –
आनंद है ‘स्व’ की पहचान।
ओम्… ओम्… ओम् आनंदमय…

 

रचना: योगाचार्य नरेन्द्र प्रसाद ‘निराला’

 

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